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नवी मुंबई : हिंदी साहित्य में यदि कोई मंच ऐसा है जहाँ शब्द, भाव और बुद्धि का अद्भुत संगम देखने को मिलता है, तो वह काव्य मंच है—जहाँ हास्य व्यंग्य की चोटें, श्रोताओं की हँसी और गंभीर जीवन-बोध एकसाथ प्रवाहित होते हैं। इस मंच पर कई दिग्गजों ने अपनी छाप छोड़ी है, जिनमें डॉ. अशोक चक्रधर और पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा जैसे नाम वर्षों से प्रतिष्ठित हैं। अब इसी कड़ी में विपुल लखनवी का नाम एक नए और विशिष्ट स्वरूप के साथ उभरता है—जो विज्ञान, साहित्य और दार्शनिक व्यंग्य को जोड़ने वाले दुर्लभ रचनाकार हैं।
डॉ. अशोक चक्रधर: व्याकरण का व्यंग्य और शब्दों का खेल
अशोक चक्रधर का नाम हिंदी हास्य-व्यंग्य साहित्य में विद्वत्ता और चपलता का प्रतीक बन चुका है। वे भाषा के व्याकरणिक पक्ष से खेलते हुए हास्य की ऐसी धार निकालते हैं जो शिक्षित वर्ग से लेकर आम जन तक को जोड़ती है। उनके दोहे, टिप्पणियाँ और मंचीय प्रस्तुतियाँ चुटीली होते हुए भी गहन भाषा-संवेदना लिए होती हैं।
सुरेंद्र शर्मा: ठेठ हरियाणवी लहजा, सीधी चोट
"मैं बीवी से बहुत परेशान हूँ..."—यह वाक्य आज एक सांस्कृतिक पहचान बन चुका है। सुरेंद्र शर्मा की शैली अपने ठेठपन, आत्म-हास्य और घरेलू विडंबनाओं से जीवन की जटिलताओं को सरल भाषा में प्रस्तुत करती है। उनका हास्य वर्ग और उम्र की सीमाएँ लाँघ जाता है।
विपुल लखनवी: जब कविता विज्ञान से संवाद करती है
विपुल लखनवी—एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से आए कवि और लेखक, जिन्होंने भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC) से सेवा निवृत्त होकर कविता और व्यंग्य को साधना बना लिया। उनका लेखन सिर्फ मनोरंजन या हँसी के लिए नहीं, बल्कि मानव चेतना, समाज और नीति पर बौद्धिक हस्तक्षेप की तरह सामने आता है।
वे न केवल दोहा, छंद और मुक्तक में सिद्धहस्त हैं, बल्कि रामकथा, हनुमान भक्ति, आध्यात्मिक चेतना और समसामयिक राजनीति पर लिखी उनकी रचनाएँ उन्हें 'दार्शनिक व्यंग्यकार' के रूप में विशेष बनाती हैं। विपुल लखनवी की शैली अशोक चक्रधर की भाषिक चतुराई से भिन्न है—यहाँ भाषा कम बोलती है, भाव अधिक सोचने पर विवश करते हैं।
तीनों की समानताएँ और भिन्नताएँ
विपुल लखनवी की विशेषता: ‘अनुभूति का विज्ञान’
जहाँ चक्रधर और शर्मा हास्य के माध्यम से मनोरंजन और मंथन करते हैं, वहीं विपुल लखनवी गंभीरता के बीच व्यंग्य का संधान करते हैं। उनके दोहे केवल मुस्कान नहीं लाते, आत्मा को कुरेदते हैं।
"दर्पण देख सदा हँसी, खुद की आँखें मूँद,सत्य दिखाने से डरें, चित्र समझ लें धुंध।"
— विपुल लखनवी
वे हास्य से नहीं, शब्दों की साधना से व्यंग्य गढ़ते हैं। यही उन्हें हिंदी व्यंग्य के एक नए युग का संवाहक बनाता है—जहाँ 'हास्य' का स्थान 'हास्यबुद्धि' ने ले लिया है।
निष्कर्ष:
डॉ. अशोक चक्रधर भाषा के सर्जक हैं, सुरेंद्र शर्मा जीवन के व्यंग्यकार हैं, और विपुल लखनवी चेतना के चिंतक हैं। तीनों ही हिंदी के मंचीय और वैचारिक परिदृश्य को समृद्ध करते हैं, अपने-अपने विशिष्ट रंग में। ये केवल कवि नहीं, समाज के आईने हैं—जो कभी मुस्कान देते हैं, कभी सोचने को मजबूर करते हैं।
Reporter - Khabre Aaj Bhi
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