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नवी मुंबई : 21वीं सदी में जब देश अंतरिक्ष में उपग्रह भेज रहे हैं, कृत्रिम बुद्धिमत्ता से कानून बना रहे हैं और महासागरों की गहराइयों तक पेट्रोलियम खोज रहे हैं, तब यूरोप के दो विकसित पड़ोसी देश, नीदरलैंड और बेल्जियम एक और मुद्दे पर उलझ गए हैं "हवा की चोरी"।
जी हाँ, यह कोई मज़ाक नहीं, बल्कि वास्तविक समाचार स्रोतों द्वारा रिपोर्ट की गई एक विचित्र लेकिन गंभीर ‘आक्षेप’ है। बेल्जियम के कुछ नागरिकों और पर्यावरणविदों ने आरोप लगाया है कि नीदरलैंड अपने विशाल पवन-चक्कियों (wind turbines) के ज़रिये सीमावर्ती क्षेत्रों की हवा "खींच" लेता है, जिससे बेल्जियम की जलवायु और हवा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। यह मामला सोशल मीडिया पर "Air Theft" या "Wind Piracy" जैसे नामों से वायरल हुआ और फिर कुछ स्थानीय बेल्जियन पर्यावरण संस्थाओं ने इस पर वैज्ञानिक अध्ययन की माँग भी कर दी।
हवा की कहानी क्या है चलिए बात करते हैं। हुआ यूं कि नीदरलैंड अपने हरित ऊर्जा अभियान के अंतर्गत हजारों पवन-चक्कियाँ लगा चुका है, जिनमें से कई बेल्जियम सीमा के पास स्थित हैं। इन चक्कियों की मदद से नीदरलैंड, अक्षय ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी बन चुका है।
कुछ विद्वानों का कहना है कि यह दावा बेशक वैज्ञानिक रूप से अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है, लेकिन यह मामला दो बातों को उजागर करता है। पर्यावरणीय संसाधनों के उपयोग पर सीमावर्ती देशों के बीच तनाव, और वैश्विक जलवायु संकट के युग में प्राकृतिक तत्वों पर अधिकार की भावना।
हवा क्या किसी एक देश की संपत्ति है। हवा, जल और धूप, ये वो प्राकृतिक तत्व हैं, जो किसी भी सीमा, किसी भी पासपोर्ट को नहीं मानते। लेकिन जब कोई देश टेक्नोलॉजी के सहारे इनका नियंत्रित उपयोग करता है, तो यह "अधिकार बनाम असर" की बहस को जन्म देता है। यदि किसी देश के तकनीकी प्रयोग से सीमावर्ती क्षेत्र प्रभावित हो रहे हों, तो क्या यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा योग्य नहीं होना चाहिए।
विज्ञान क्या कहता है, वायुगतिकीय (aerodynamics) और मौसम विज्ञान के विशेषज्ञों का मानना है कि पवन चक्कियाँ हवा की दिशा या तीव्रता को स्थानीय स्तर पर थोड़ी देर के लिए जरूर प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन उससे किसी देश के मौसम में स्थायी बदलाव की संभावना नगण्य है। हालाँकि, यह विषय अध्ययन का पात्र अवश्य बन सकता है, विशेषकर यदि एक क्षेत्र में अत्यधिक घनत्व में टर्बाइन्स लगाए जाएँ।
जब प्रकृति पर पेटेंट चाहें देश तब बात केवल हवा की नहीं है। इतिहास गवाह है कि विकसित राष्ट्रों ने कभी जलधाराओं, तो कभी बीजों के जीनोम, तो कभी समुद्र की गहराइयों को लेकर ‘बौद्धिक संपदा’ की बहस छेड़ी है। अब यदि हवा भी ‘संपत्ति’ मान ली जाए, तो आने वाले वर्षों में "Cloud Rights", "Sunlight Shareholding", और "Rainwater Leasing" जैसे कानून बनते देर नहीं लगेगी!
व्यंग्य की हवा भी यूं बह चली कि सोशल मीडिया पर यह मुद्दा व्यंग्यकारों और मीम-निर्माताओं के लिए सोने की खान बन गया है। कुछ चर्चित टिप्पणियाँ हैं।नीदरलैंड ने अब हवा भी एक्सपोर्ट करनी शुरू कर दी।
बेल्जियम सरकार ने पवन-चक्कियों पर सीमाशुल्क लगाने की योजना बनाई है। अब संयुक्त राष्ट्र संघ ही बताए हवा का पासपोर्ट कैसे बनेगा।
यह विवाद भले ही अजीब लगे, लेकिन यह दुनिया को एक संदेश जरूर देता है। जब संसाधनों का असमान उपयोग होने लगता है, तब सबसे सार्वभौम चीज़ हवा भी राजनीतिक बन जाती है। ज़रूरत इस बात की है कि देश आपसी संवाद से मिलकर प्राकृतिक संसाधनों के न्यायसंगत और समन्वित उपयोग का मार्ग अपनाएँ। क्योंकि हवा किसी की नहीं, फिर भी सबकी है।
Reporter - Khabre Aaj Bhi
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