पुस्तक समीक्षा- My Life in Indian Politics : Mohsina Kidwai

By: Khabre Aaj Bhi
Sep 02, 2023
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लखनऊ : शादी के दो महीने बाद 1954 में मोहसीना किदवयी को उनके ससुर और कांग्रेस नेता जमील उर रहमान साहब नेहरू जी से मिलवाने दिल्ली ले गए। तीन मूर्ति भवन में प्रधान मंत्री जी का इंतेज़ार कर रहे थे तभी इंदिरा गाँधी आईं और जमील साहब को सलाम करने के बाद उनसे पूछा कि क्या ये खूबसूरत लड़की उनकी बेटी हैं। जमील साहब ने बताया कि नहीं ये मेरी बड़ी बहू हैं। इंदिरा जी पास में बैठ गयीं। तभी नेहरू जी भी आ गए और जमील साहब से कहा कि बहू को राजनीति में कब ला रहे हैं। 

ये नेहरू परिवार से मोहसीना किदवयी की पहली मुलाक़ात थी। यहीं से उस रिश्ते की गाँठ पड़ी जो राजीव जी, सोनिया जी से होते हुए राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी तक चली आ रही है। गाँधी परिवार के बाहर वो उन गिने चुने लोगों में हैं जिन्हें इस परिवार का हिस्सा माना जाता है। भरोसा इतना गहरा था कि इंदिरा जी की अस्थियों को प्रवाहित करने की ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी ने इन्हें ही सौंपी थी और जब सोनिया जी ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तब मोहसीना किदवयी ही उनके साथ नॉमिनेशन में रहीं। 

इसलिए मोहसीना किदवयी की आत्मकथा 'My Life in Indian Poltics' सिर्फ़ उनकी अपनी कहानी नहीं रह जाती है। यह कांग्रेस, देश, और सबसे अहम नेहरू गाँधी परिवार को समझने-देखने का भी माध्यम बन जाती है। बात 1942 के आसपास की होगी। तब मोहसीना जी के ससुर जमील साहब को कांग्रेस ने चुनाव लडने को कहा। उनके बड़े भाई इसके खिलाफ़ थे क्योंकि जो जमाल मियां मुस्लिम लीग से लड़ रहे थे उनकी लोकप्रियता काफ़ी थी और मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा लीग के साथ था। लेकिन जमील साहब ने कहा कि पार्टी का निर्णय सर्वोपरी है। वो चुनाव लड़े और हार गए। भाइयों के बीच फिर कभी बातचीत नहीं हुई। बाद में नेहरू जी ने जब दिल्ली में उनसे कहा कि आपके बारे में यह सूचना है कि आपने मौलानाओं को अपने प्रचार में शामिल नहीं किया इसलिए हार गए। इस पर उन्होंने कहा कि चुनाव कोई धार्मिक मुद्दा नहीं है कि इसमें मौलानाओं का इस्तेमाल किया जाए। मोहसीना जी अपने अंदर कांग्रेस की सेकुलर विचारधारा को रोपने का श्रेय अपने ससुर को ही देती हैं। 


उन दिनों की कांग्रेस को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। बात आज़ादी से कुछ साल पहले की है। तब मोहसीना जी के ससुर बाराबंकी कांग्रेस के ज़िला अध्यक्ष थे। उन्हें एक दिन नेहरू जी का एक पोस्ट कार्ड मिला जिसमें लिखा था कि गांधी जी को हैदरगढ़ तहसील के किसी कार्यकर्ता से शिकायत मिली है कि 25 पैसे वाली सामान्य सदस्यता एक ऐसे व्यक्ति को दे दी गई है जो ठेकेदार है। जबकि कांग्रेस के नियम के अनुसार कोई ठेकेदार पार्टी का सदस्य नहीं बन सकता। पत्र में लिखा गया था कि गांधी जी चाहते हैं कि ज़िला अध्यक्ष ख़ुद वहां जाकर तहकीकात करे। किन्हीं कारणों से वो नहीं जा पाए।  15 दिन बाद फिर नेहरू जी का पोस्ट कार्ड आया जिसमें लिखा था कि गांधी जी जानना चाहते हैं कि अभी तक जांच क्यों नहीं हुई क्या ज़िला अध्यक्ष इतने नाकारा हैं कि वो नहीं जा सकते। अगर ऐसा है तो नेहरू जी ख़ुद जाकर जांच करेंगे। इसके बाद बैल गाड़ी से जमील साहब गए और जांच की जिसमें आरोप सही पाया गया और उस व्यक्ति की सदस्यता ले ली गई। (पेज 21)मोहसीना जी इस किताब में बार-बार कहती हैं कि कांग्रेस की कमज़ोरी की सबसे बड़ी वजह अपने नैतिक मूल्यों से पार्टी नेताओं का दूर होना है। 

यहां पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी जो शुरुआती सालों में कांग्रेस में रहे और अपने सोशलिस्ट साथियों मोहन धारिया, कृष्णकांत, चंद्रजीत यादव, सी सुब्रह्मण्यम के साथ युवा तुर्क कहलाते थे, के बहाने उस दौर के कांग्रेस की नैतिक आभा को देखना दिलचस्प होगा जिसका ज़िक्र इस किताब में है। बिहार सरकार के मुख्यमंत्री हरिहर सिंह के माध्यम से रामगढ़ के जमीनदार राजा कामाख्या नारायण सिंह मंत्री बना दिए गए थे। इसे चंद्रशेखर ने मुद्दा बना दिया क्योंकि पार्टी पहले तय कर चुकी थी कि ऐसे ज़मीनदार कांग्रेस की सरकारों में मंत्री नहीं बन सकते जो पहले कांग्रेस में नहीं थे। इस मुद्दे पर सी सुब्रह्मण्यम जो तमिलनाडू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे, ने सीडब्ल्यूसी से इस्तीफ़ा दे दिया। तब कांग्रेस वर्किंग कमेटी को पीछे हटना पड़ा। सुब्रह्मण्यम जी का इस्तीफ़ा अस्वीकार हुआ। बिहार सरकार से कामाख्या नारायण जी को हटाया गया। यह चंद्रशेखर जी की व्यक्तिगत जीत थी। (पेज 228) 

लेकिन मोहसीना जी के लिए सब कुछ आसान नहीं था। एमएलसी का टर्म पूरा होने के बाद वो कई गुटों में बंटी कांग्रेस के सीबी गुप्ता खेमे से विधानसभा चुनाव में उतरीं। दूसरे खेमे ने मुनेश्वर दत्त उपाध्याय को उतारा। मोहसीना जी 250 वोटों से चुनाव हार गयीं। हार से ज़्यादा उन्हें इस बात का अफसोस था कि कांग्रेस के ही लोगों ने चुनाव को सांप्रदायिक बना दिया था। उन्होंने दिल्ली जाकर इंदिरा जी से इसकी शिकायत की। इंदिरा जी ने इनसे कहा कि राजनीति में अपनी चमडी मोटी रखनी पड़ती है। 

अगस्त 1966 में फिर चुनाव हुए। सीबी गुप्ता के कहने पर वो फिर इंदिरा जी से मिलने उनके घर गयीं। उनसे बात कर ही रही थीं कि बताया गया कि हेमवती नंदन बहुगुणा और एम आर शेरवानी आए हैं। इंदिरा जी ने मोहसीना जी को वहीं रहने के लिए बोल कर बाहर इन दोनों नेताओं से मिलने चली गयीं। बहुगुणा जी ऊँची आवाज़ में मोहसीना जी को टिकट नहीं देने की वकालत कर रहे थे। उनकी आवाज़ जब और ज़्यादा ऊंचीं होने लगी तो इंदिरा जी ने उन्हें रोका। दूसरे कमरे तक इंदिरा जी की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी 'कितनी मुस्लिम औरतें चुनाव लड़ने के लिए आगे आती हैं? अगर कोई आ भी जाती हैं तो आप उनके चुनाव को इतना सांप्रदायिक बना देते हैं कि उनके जीतने की संभावना खत्म हो जाती है। हमें ऐसी महिलाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए और हर तरह से उनके नेतृत्व को विकसित करना चाहिए। मोहसीना ही हमारी प्रत्याशी होंगी'। मोहसीना जी वो चुनाव जीत गयीं। (पेज28). 

कांग्रेस के विभाजन के बाद उसे मिले नए चुनाव निशान 'पंजा' पर चुनाव लड़ने और जीतने वाली पहली उम्मीदवार मोहसीना जी ही थीं। जिसके बाद कांग्रेस की दुबारा सत्ता में वापसी हुई थी। आजमगढ़ से लड़ रहीं मोहसीना जी के लिए इंदिरा गाँधी ने 5 दिनों तक आजमगढ़ के गांव और क़स्बों में प्रचार किया था। आजमगढ़ चुनाव पर बहुत विस्तार से उन्होंने लिखा है। एक जगह जॉर्ज फर्नांडिज सभा कर रहे थे तभी इंदिरा जी की कार वहाँ से गुज़री। पूरी भीड़ इंदिरा- इंदिरा करती हुई कार की तरफ आ गयी। उसी तरह एक तिलकधारी पंडित जी थे जिनका घर चंद्रजीत यादव का कार्यालय था। कुछ लोग मोहसीना जी को उनके घर भी लेकर चले गए जहाँ उनका खूब स्वागत हुआ और सबने कहा कि कांग्रेस को ही वोट देंगे। महिलाओं ने उन्हें 20 रुपया चन्दा भी दिया। एक पान वाले का भी ज़िक्र है जिसने मोहसीना जी को 20 रूपये चंदा दिया ताकि वो गाड़ी में तेल भरवा सकें।

इमर्जेंसी के समय मोहसीना जी उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत पायी। इंदिरा जी और संजय गाँधी ख़ुद भी चुनाव हार गए थे। ऐसे समय में भी इंदिरा गाँधी ने मोहसीना जी को प्रदेश अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ने दिया। 

जनता सरकार ने यूपी विधान सभा भंग कर दी, जून 1977 में चुनाव घोषित हो गए। इंदिरा जी घर से निकलना बन्द कर चुकी थीं। कार्यकर्ताओं और नेताओं में चुनाव को लेकर कोई उत्साह नहीं था। मोहसीना जी इंदिरा जी को घर से निकलने के लिए मनाने गयीं। लेकिन इंदिरा जी नहीं तैयार हुईं। उन्होंने कहा कि मुझे बताया गया है कि मैंने कांग्रेस का पहले ही काफी नुक्सान कर दिया है। अगर लोगों के बीच जाऊंगी तो और नुक्सान होगा। मोहसीना जी ने ऐसी गलत बात समझाने वालों का नाम पूछा लेकिन इंदिरा जी ने किसी का नाम नहीं लिया। चलते हुए मोहसीना जी ने यही कहा कि जो लोग भी आपको ऐसा समझा रहे हैं वो पार्टी और आपके शुभ चिंतक नहीं हैं। 

इस बीच चुनाव प्रचार सामग्री छप गयी थी जिसपर इंदिरा गाँधी की फोटो थी। एक प्रत्यशी ने इंदिरा गाँधी की फोटो वाली सामग्री लेने से इनकार कर दिया। बहुत से और भी लोग नहीं चाहते थे कि इंदिरा जी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए। लेकिन मोहसीना जी ने स्पष्ट कर दिया था कि चुनाव इंदिरा जी के नाम पर ही लड़ा जाएगा। जिन्हें आपत्ति हो वो चुनाव न लड़ें। पार्टी के पास चुनाव लड़ने के लिए फंड नहीं था। मोहसीना जी ने अपना फिक्स्ड डिपोज़िट तोड़कर 90 हज़ार रूपये पार्टी को दिए। 425 में से 48 सीटें ही कांग्रेस जीत पायी। 

दिन गुजरते गए। नारायण दत्त तिवारी और मोहसीना किदवयी ने धीरे धीरे संगठन को दुरुस्त करना शुरू किया। इंदिरा जी को घर से निकलने के लिए मोहसीना जी ने काफी प्रेरित किया। ग़ाज़ियाबाद में पहली मीटिंग रखी गयी। सड़क के दोनों तरफ काफी भीड़ थी। जिसमें कई लोगों ने इंदिरा गाँधी को काले झंडे दिखाये। अचानक कुछ लोगों ने लोहे की रॉड से इंदिरा जी की गाड़ी के शीशे पर हमला कर दिया। मोहसीना जी भी उसी गाड़ी में थीं। संयोग से कोई घायल नहीं हुआ। मंच पर बोलने से ठीक पहले भीड़ से आकर किसी ने माइक छीन लिया। इंदिरा जी ने बिना माइक के ही भाषण दिया। 

ग़ाज़ियाबाद के बाद अन्य शहरों में भी इंदिरा जी की छोटी- छोटी सभाएं मोहसीना जी ने करवाई। लगभग हर जगह विरोध का सामना करना पड़ा।  लेकिन धीरे धीरे माहौल बदलने लगा। लोगों को महसूस होने लगा कि कांग्रेस को वोट न देकर उन्होंने अपना नुकसान किया है। हर तरफ से अब नारे सुनाई देने लगे- 'आधी रोटी खायेंगे इंदिरा को लाएंगे', 'तूफान में और आंधी में विश्वास है इंदिरा गाँधी में'। 

लखनऊ स्थित प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय देश का सबसे खूबसूरत कांग्रेस कार्यालय माना जाता है। पार्टी के विभाजन के बाद यूपी कांग्रेस को नये दफ्तर की ज़रूरत थी। 2 लाख 75 हज़ार रूपये में इसे मोहसीना जी ने खरीदा था। मोहसीना जी और उनके पति ने ज़्यादातर पैसा लगाया। बाकी के लिए अखबारों में इश्तेहार दिया गया। लोगों ने 10 रूपये से लेकर 100 रुपये तक चंदा दिया। जब इंदिरा जी से मोहसीना जी मिलीं तो नए कार्यालय के बारे में बताया। इंदिरा जी ने कहा कि मैंने सुना है कि वो कार्यालय आपके नाम पर है और लोगों का कहना है कि आप उसे पार्टी को शायद न दें। मोहसीना जी ने उन्हें दस्तखत किया हुआ एक सादा काग़ज़  देते हुए कहा कि बेशक संपत्ति मेरे नाम से है और उनसे कोई भी इसे नहीं ले सकता। लेकिन यह उन्होंने पार्टी के लिए खरीदा है। 2018 तक यह संपत्ति जो अब अरबों की होगी मोहसीना जी के नाम ही रही। राज बब्बर जी के प्रदेश अध्यक्ष रहते उन्होंने क़ानूनी तौर पर इसे पार्टी को सौंप दिया। तब राज बब्बर जी ने आश्चर्य से कहा था कि आप जो कर रही हैं बहुत कम लोग ऐसा करते हैं। मोहसीना जी का जवाब था-  मैंने हमेशा 10 माल एवेन्यू को पार्टी की मिल्कियत समझी। इस महान पार्टी और उसकी विचारधारा के प्रति मेरी तरफ से यह एक छोटी सी भेंट है। 

92 साल की मोहसीना जी पार्टी के साथ अब भी सक्रिय रहने की इच्छा शक्ति रखती हैं। सीएएएन-आरसी विरोधी आंदोलन के हिंसक दमन की घटनाओं पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जब राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी जी जाँच रिपोर्ट देने गए थे तो उनमें मोहसीना जी भी थीं। जिनके आते ही राहुल जी और प्रियंका जी खड़े हो गए और उन्हें उनकी कुर्सी पर बैठाया। जब ऐसा हो रहा था हम सब खड़े रहे। इसी तरह विधान सभा चुनाव हारने के बाद प्रियंका जी के कार्यालय में आयोजित समीक्षा बैठक में भी उनकी उपस्थिति ने पार्टी और देश के प्रति उनकी चिंताओं को रेखांकित किया। 

यह किताब उन सबको पढ़नी चाहिए जो आज़ादी के बाद से अब तक के राजनीतिक उथल पुथल के बीच अपने विचारों और सौम्य व्यवहार से कभी भी समझौता नहीं करने वाले किसी शख्स को जानना चाहते हों। ऐसे शख्स को भी जिसके सार्वजनिक जीवन में इतनी सुचिता थी कि केंद्रीय मंत्री रहते हुए मुख्य अतिथि के बतौर अपने ही मेधावी बेटी को स्कूल में सम्मानित करने जाती थीं लेकिन माँ और बेटी के अलावा कोई उनके रिश्ते को नहीं जान पाता था। एक ऐसे शख्स को भी आप किताब से जान सकते हैं जिनके दो भाई बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए। जहाँ एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी बना और दूसरे की बांग्लादेश निर्माण के उथल पुथल में हत्या हो गयी।


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Reporter - Khabre Aaj Bhi

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