भाजपा को ४०% बने रहना, सपा एवं बसपा को २२ % से ४०% पहुंचना चुनौती पूर्ण

By: rajaram
Aug 11, 2021
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उत्तर प्रदेश : २०२२  विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अपने रिकॉर्ड ३ करोड़ ४४ लाख मतदाता एवं ४०% मतों को बचाये रखना तथा सपा एवं बसपा को २२ % मत से सत्ता हासिल करने के लिए ४०% तक पहुंचना चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। १९८५ में कांग्रेस ४०% मतों के साथ २६९ सीटें जीतकर सरकार बनाई थी। यह रिकॉर्ड भाजपा ने ३२ वर्षों के बाद तोड़ा। उसे ४०% मत और ३१२ सीटें मिली। १९८५  के बाद जितनी भी सरकारें बनी वह सभी २९% से ३३% मत पाकर ही बनी। ३३% मत पाने का रिकॉर्ड भी १९९३ में मंडल और कमंडल के बीच लड़ाई में भाजपा को मिला था। हालांकि सरकार सपा और बसपा ने मिलकर बनाई थी। २०१७ के चुनाव में रिकॉर्ड ६३.३१% मतदान हुआ था जिसमे कुल पड़े मतों का ३९.६७ % मत और वोटों की संख्या में ३ करोड़ ४४ लाख मत भाजपा को मिले और अप्रत्याशित ३१२ सीटें जीती।

दूसरे स्थान पर ३११ सीटों पर लड़कर २१.८२ % तथा १ करोड़ ८९ लाख २३ हजार ७६९ मत पाकर ४७ सीटें जीती थी। बसपा मतों के अनुसार सपा से ३ लाख अधिक मत पाई थी उसे २२.२३% मत और १ करोड़ ९२ लाख ८१ हजार ३४०वोट मिले लेकिन सीटें मात्र १९ ही मिली। बसपा का वोट इसलिए ज्यादा है क्योंकि वह ४०३ सीटों पर लड़ी थी और सपा कांग्रेस समझौते के कारण ३११ सीटों पर ही चुनाव लड़ी। कांग्रेस, सपा से समझौते के बाद ११४ सीटों पर लड़ी उसे मात्र ६.२५% वोट और ७ सीटें ही मिली। कांग्रेस प्रदेश में सीटों की संख्या में अपना दल से पीछे और ५ वे स्थान पर है। अपना दल को भाजपा से गठबंधन के बाद ९ सीटें मिली थी।

अब सबसे गंभीर और महत्वपूर्ण सवाल यही है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता, अमित शाह का चुनावी प्रबंधन तथा मुख्यमंत्री योगीआदित्यनाथ की सरकार के उपलब्धियों के आधार पर २०१७ में मिले ४०% वोटों को बचा पाएंगे ?

दूसरी तरफ सपा के नेता अखिलेश यादव ४०३ सीटों पर लड़कर सरकार बनाने के लिए ४०% समर्थन जुटा पाएंगे ? मायावती का २००७ ब्राह्मण-दलित फॉर्मूला २०२२ में भाजपा के ४०% मतों को चुनौती दे पायेगा ? प्रियंका गाँधी कांग्रेस की खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस दिलाने में कामयाब होंगी ? छोटे दल जो जातीय एवं धार्मिक सियासत पर सत्ता का सुख भोगने के लिए जोड़-तोड़ में जुटे हैं उनकी भूमिका और रणनीति या गठबंधन किसको लाभ पहुचायेगा ? विधानसभा चुनाव २०२२ के यह ऐसे सवाल हैं जिस पर अंतिम निर्णय मतगणना के बाद ही पता चल पायेगा लेकिन जिस तरह से सियासत हो रही है। भाजपा ३५० तथा अखिलेश यादव ४०० सीटों और मायावती बहुमत सरकार बनाने का दावा कर रही हैं। इन दावों में सच्चाई क्या होगी ?

यह तो निश्चित है जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांव, गरीब, किसान, दलित, पिछड़े, महिलाओं के लाभ के लिए उनके खातों में सीधे धनराशि दे रहे हैं। १५ करोड़ राशन कार्ड धारकों को अन्न महोत्सव के तहत प्रति व्यक्ति ५ किलों आनाज २ करोड़ ४८ लाख किसानों के खातों में किसान सम्मान निधि की ६ हज़ार रूपये की धनराशि और उज्जवला योजना के दूसरे चरण में पहले चरण में लाभ से वंचित रहे परिवारों को गैस कनेक्शन,४० लाख से अधिक लोगों को आवास, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक सभी वर्गों के बच्चे महिला छात्र आदि को विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में ७ करोड़ ३७ लाख से अधिक परिवारों के खातों में सीधे धनराशि पहुँचाना आदि ऐसे कल्याणकारी कार्यों से लगभग २४ करोड़ आबादी का हर परिवार कहीं न कहीं विशिष्ट वर्ग को छोड़कर लाभान्वित हो रहा है। प्रधानमंत्री के सीधे लाभ देने की योजनाओं से मतदाता २०२२ में भाजपा की सरकार का समर्थन करेंगे या फिर कोरोना संकट में हुई परेशानी, मॅहगाई, रोजगार आदि तमाम ऐसे मुद्दों पर भाजपा के विरोध में मतदान करेंगे।

जिस तरह से मोदी एवं योगी सरकार हर छोटे से छोटे कल्याणकारी कार्यों को इवेंट बनाकर व्यापक प्रचार प्रसार करती है, क्या मतदाताओं पर इसका प्रभाव पड़ेगा ? विपक्ष सपा नेता अखिलेश यादव परसेप्शन के आधार पर भाजपा के विकल्प के रूप में चर्चा में है। लेकिन सवाल यही उठ रहा है कि क्या अखिलेश यादव मोदी के कल्याणकारी योजनाओं से लाभवन्तित होने वाले मतदाओं को सरकार की नाकामियों के खिलाफ अभियान चला कर जोड़ने में कामयाब होंगे। अखिलेश के लिए सबसे बड़ी चुनौती भाजपा के कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी और मीडिया की एकतरफा भाजपा को लाभ पहुंचाने तथा भाजपा से नाराज मतदाओं को एकजुट करने, ओवैसी जैसे मुस्लिम सियासत करने वाले नेताओं से मुसलमानों के मतों में विभाजन रोकने तथा पिछड़ी जातियों में बटें हुए पिछड़े वर्ग के नेताओं को साथ में जोड़ने और भाजपा से नाराज चल रहे ब्राह्मणों को सम्मान के साथ सपा में लाने में कामयाब होंगे।

यह बहुत बड़ा सवाल है और अखिलेश यादव के चुनाव प्रबंधन उनकी क्षमता और योग्यता का सबसे का बड़ा इम्तिहान भी है। जहाँ तक बसपा का सवाल है उसको लेकर नकारात्मक परसेप्शन बन गया है कि मायावती की सियासी कार्य शैली और हर कदम सपा को कमजोर करने और भाजपा को लाभ पहुंचाने वाला है। २००७ जैसे स्थिति बसपा की नहीं है और न ही वैसी राजनीतिक परिस्थितियां है। कांग्रेस की रणनीति पर तय होगा कि प्रियंका का चेहरा उत्तर प्रदेश में आगे लेकर चुनाव में उतरेंगे और परम्परागत मतदाता ब्राह्मण दलित और मुस्लिम को महत्व देकर साथ में जोड़ेंगे या फिर संघर्षशील लल्लू के कंधों पर ही कांग्रेस को चुनावी जीत का प्रयास करेंगे।

यह अभी राजनीतिक परिस्थितयां और सियासत जो हो रही है उसमे निश्चित रूप से जाति एवं धर्म प्रमुख मुद्दे होंगे लेकिन इसके साथ ही योगी सरकार की नाकामी और मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी अहम् भूमिका निभाएंगी। समय तय करेगा कि २०२२  में कोरोना से पीड़ित परिवारों की आह, महगाई तथा बेरोजगारी जीतेंगे या फिर मोदी के योजनाओं से लाभान्वित होने वाले लाभार्थी मौजूदा परिस्थितियों में अप्रत्याशित परिणाम देने के लिए एकतरफा किसी दल विशेष के पक्ष मे नहीं है।


rajaram

Reporter - Khabre Aaj Bhi

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