उर्दू के बारे में गलतफहमियां और जरूरत... M.W.Ansari.Ex.DGP

By: Khabre Aaj Bhi
Dec 08, 2021
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भोपाल : इल्म सीखना कितना जरूरी है इसका एहसास तब होता है जब इन्सान को इसकी जरूरत होती है और वो उसके पास नहीं होता । उस वक्त, मनुष्य की सारी की सारी कोशिशें बेकार नजर आती । इसी तरह उर्दू को लेकर भी लोगों में जो बे-हसी है वह उजाले की तरह स्पष्ट है। आज, पढ़ते समय, एक उर्दू अखबार में छपी खबर पर मेरी नजर पड़ी, तो मुझे एहसास हुआ कि जो लोग कहते हैं कि उर्दू पढ़ने से नौकरी नहीं मिलती, आदि, यह खबर विशेष रूप से उनके लिए है। आज कई मल्टी नेश्नल कंपनियों में उर्दू पढ़े-लिखे लोगों के लिए वैकेंसी हैं। इन कंपनियों को उर्दू कंटेंट राइटर्स, उर्दू जानने वाले अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों की जरूरत है, लेकिन उनके अनेक प्रयासों के बावजूद ऐसे उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हुए हैं। ऐसे मामलात के सामने आने से अफसोस होता है कि लोग उर्दू से कितने दूर हो गए हैं । जबकि उर्दू कभी भारत की मातृभाषा (राष्ट्रीय भाषा) हुआ करती थी। जो आज भी अदालत से लेकर रोजमर्रा के बोल-चाल में इस्तेमाल होते हैं। और भारत की आजादी में भी उर्दू अखबारों और उर्दू कविताओं के जरिए स्वतंत्रता सेनानियों में देशभक्ति का जज्बा जगाया गया। आज भी भारतीय सिनेमा जिसे हिंदी फिल्म कहा जाता है, उस में अगर आप आप देखेंगे तो 99 प्रतिशत उर्दू शब्दों का प्रयोग होता है। उर्दू भाषा और उर्दू संस्कृति जिसके जरिए भारत का नाम पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ। आज उसी उर्दू के साथ भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा अन्याय किया जा रहा है। उर्दू को सरकारी कार्यालयों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से आजादी के बाद से लगातार नजर अंदाज (उपेक्षा) की गई है और यह चलन अभी भी जारी है। अब तो नोबत (स्थिति) यह आ गई है कि उर्दू लिखने पढ़ने वाले ही नहीं मिल रहे हैं। और उर्दू के नाम-निहाद  लोग तमाशाई बने बैठे हैं। उर्दू संस्थाएं जो उर्दू के विकास की बात करते है वह सिर्फ उर्दू के नाम पर सभाओं और शायरी का आयोजन कर खुद को अपनी जिम्मेदारी से बरी समझते हैं. क्या उर्दू संस्थाओं की जिम्मेदारी सिर्फ यही है कि वह केवल जलसे और मुशायरे कराए? क्या उन्हें उर्दू की बदहाली नजर नहीं आती? क्या उनको जमीनी स्तर पर जाकर उर्दू के विकास के लिए काम करने की जरूरत नहीं है? यकीन मानिए अगर ऐसा ही चलता रहा तो उर्दू का नाम लेने वाला कोई नहीं बचेगा। सच तो यह है कि सरकारें तो उर्दू को नज़रअंदाज़ कर ही रही हैं, हम भी इस से कम गाफिल (लापरवाह) नहीं हैं. आज हमें गफलत से बाहर निकलकर उर्दू की बिका (अस्तित्व) के लिए काम करने की ज़रूरत है। हमें उर्दू को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए उर्दू को दरस-व-तदरीस (पठन-पाठन)  में शामिल करने की जरूरत हैा होगा। हमें सरकार से भी सवाल करने की ज़रूरत है। हमें उर्दू मुलाज़मीन-व-तलबा (शिक्षकों-छात्रों) की भी जिहन साजी़ करने की और उर्दू संस्थाओं में काम करने वालों की हौसला अफजाई (बढ़ाने) करने के साथ-साथ उनकी मदद करने की भी जरूरत है। उर्दू के लिए काम करने वालों की टांग खींचने के बजाय उनके काम को आगे बढाने और जो कमी बेशी है उस को सुधारने की जरूरत है। हम तमाम उर्दू के लिए काम करने वालों को बिला तफरीक़ (भेदभाव) के केवल उर्दू के लिए काम करने की ज़रूरत है।



Khabre Aaj Bhi

Reporter - Khabre Aaj Bhi

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